अपराजिता स्तोत्रम् एक ऐसा पवित्र स्तोत्र है, जो देवी दुर्गा के एक विशेष रूप, “अपराजिता” की स्तुति करता है। यह स्तोत्र भक्तों के लिए आध्यात्मिक शक्ति, साहस और विजय प्राप्त करने का माध्यम है। इसे अपराजित स्तोत्र भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है “अजेय देवी का स्तवन”। यह स्तोत्र उन लोगों के लिए अत्यंत फलदायक माना जाता है, जो जीवन की कठिनाइयों और संघर्षों में सफलता प्राप्त करना चाहते हैं।
अपराजिता का स्वरूप
अपराजिता देवी को शक्ति, विजय और साहस का प्रतीक माना गया है। वे महिषासुरमर्दिनी, दुर्गा और चामुंडा के समान ही अपने भक्तों की रक्षा करती हैं। देवी का यह रूप उनके अजेय होने और हर संकट पर विजय प्राप्त करने की क्षमता को दर्शाता है।
अपराजिता स्तोत्रम् का महत्व
अपराजिता स्तोत्रम् केवल एक धार्मिक पाठ नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा मार्गदर्शक है जो जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने का आधार प्रदान करता है। देवी अपराजिता को शक्ति, विजय और अजेयता का प्रतीक माना गया है। उनके स्तवन से न केवल भक्तों को आंतरिक शांति और शक्ति मिलती है, बल्कि वे बाहरी कठिनाइयों का सामना करने में भी समर्थ होते हैं। आइए, अपराजिता स्तोत्रम् के महत्व को विस्तार से समझते हैं।
1. आध्यात्मिक शक्ति का विकास
अपराजिता स्तोत्रम् का पाठ मनुष्य के भीतर सकारात्मक ऊर्जा का संचार करता है। यह पाठ नकारात्मक विचारों और भावनाओं को दूर करता है और व्यक्ति को आध्यात्मिक रूप से मजबूत बनाता है। यह आत्मा को ऊर्जावान और शांत करता है, जिससे व्यक्ति अपने जीवन के उद्देश्यों को समझने और प्राप्त करने में सफल होता है।
जिन लोगों के जीवन में बार-बार समस्याएं, संघर्ष और विफलता का सामना करना पड़ता है, उनके लिए यह स्तोत्र विशेष रूप से लाभकारी है। इसका नियमित पाठ व्यक्ति को मानसिक और भावनात्मक स्तर पर संतुलित करता है और जीवन के कठिन समय में मार्गदर्शन प्रदान करता है।
2. विजय का प्रतीक
अपराजिता स्तोत्रम् देवी के “अजेय” स्वरूप की स्तुति करता है। यह पाठ व्यक्ति के जीवन में विजय का आह्वान करता है। चाहे वह व्यक्तिगत संघर्ष हो, व्यवसाय में बाधा हो, या कोई अन्य चुनौतीपूर्ण परिस्थिति, इस स्तोत्र के माध्यम से देवी अपराजिता की कृपा प्राप्त कर व्यक्ति सभी में विजयी हो सकता है।
अपराजिता देवी को शत्रुनाशिनी भी कहा जाता है। यह स्तोत्र व्यक्ति को शत्रुओं से सुरक्षा प्रदान करता है, चाहे वे बाहरी हों या आंतरिक। इसका पाठ नकारात्मक ऊर्जा को समाप्त करता है और व्यक्ति को हर तरह के भय से मुक्त करता है।
3. आत्मविश्वास और साहस में वृद्धि
अपराजिता स्तोत्रम् का पाठ करने से मनुष्य के भीतर अदम्य साहस और आत्मविश्वास का संचार होता है। यह स्तोत्र याद दिलाता है कि हर चुनौती पर विजय पाना संभव है, बशर्ते हमारे मन में विश्वास और साहस हो।
यह स्तोत्र जीवन में सुख, सौभाग्य और समृद्धि लाने का माध्यम है। देवी अपराजिता की कृपा से व्यक्ति के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन आते हैं, और उसे रुके हुए कार्यों में सफलता प्राप्त होती है।
4. कार्यसिद्धि और मनोकामना पूर्ति
जो व्यक्ति अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए इस स्तोत्र का श्रद्धा और भक्ति के साथ पाठ करता है, उसे देवी अपराजिता की कृपा से अपनी इच्छाओं को प्राप्त करने में सहायता मिलती है। यह पाठ विशेष रूप से उन कार्यों में सफलता दिलाता है जो लंबे समय से बाधित हैं।
जीवन में समस्याओं और संघर्षों के बीच धैर्य और मानसिक शांति बनाए रखना महत्वपूर्ण है। अपराजिता स्तोत्रम् का पाठ मनुष्य को आंतरिक संतुलन प्रदान करता है, जिससे वह विपरीत परिस्थितियों में भी शांत और दृढ़ रह सकता है।
5. युद्ध और न्याय में विजय
प्राचीन काल में योद्धा और राजा युद्ध के समय अपराजिता स्तोत्रम् का पाठ करते थे। आज के युग में भी, यह स्तोत्र हर प्रकार के संघर्ष और अन्याय के विरुद्ध लड़ाई में सफलता दिलाने में सहायक है।
अपराजिता स्तोत्रम् सांसारिक और आध्यात्मिक जीवन के बीच संतुलन स्थापित करता है। यह मनुष्य को न केवल भौतिक सफलता दिलाने में मदद करता है, बल्कि उसे अपने आध्यात्मिक उद्देश्य की ओर भी प्रेरित करता है।
अपराजिता स्तोत्रम् का महत्व इसके हर श्लोक में समाहित है। यह केवल एक धार्मिक पाठ नहीं, बल्कि आत्मविश्वास, विजय और समृद्धि का मार्ग है। इसका नियमित पाठ व्यक्ति को अजेय बनाता है और उसे जीवन की हर परिस्थिति में स्थिर और सफल रहने की प्रेरणा देता है। देवी अपराजिता की कृपा से जीवन में आने वाली हर बाधा और संकट समाप्त हो जाते हैं।
अपराजिता स्तोत्रम् का पाठ विधि
अपराजिता स्तोत्रम् का पाठ देवी अपराजिता की कृपा और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए किया जाता है। इस स्तोत्र को पढ़ने के लिए भक्त को सही विधि और नियमों का पालन करना चाहिए। पाठ विधि जितनी सरल है, उतनी ही प्रभावशाली भी है, बशर्ते इसे श्रद्धा और भक्ति के साथ किया जाए। नीचे अपराजिता स्तोत्रम् के पाठ की विस्तृत विधि दी गई है।
1. पाठ के लिए उपयुक्त समय
- प्रातःकाल: अपराजिता स्तोत्रम् का पाठ सूर्योदय के समय करना सबसे श्रेष्ठ माना गया है। यह समय ब्रह्म मुहूर्त के बाद आता है, जब वातावरण शुद्ध और शांत होता है।
- संध्याकाल: यदि प्रातःकाल संभव न हो, तो संध्या समय भी उपयुक्त है। यह समय देवी को प्रसन्न करने के लिए अनुकूल है।
- विशेष अवसरों जैसे नवरात्रि, अष्टमी, नवमी, या विजयादशमी के दिन इसका पाठ करने का महत्व और भी बढ़ जाता है।
2. पाठ से पहले तैयारी
(क) स्नान और शुद्धता:
- पाठ से पहले स्नान करें और स्वच्छ वस्त्र पहनें।
- मन और स्थान की शुद्धि का ध्यान रखें।
(ख) पूजा स्थल की तैयारी:
- एक साफ और शांत स्थान का चयन करें, जहाँ बिना किसी बाधा के पूजा और पाठ किया जा सके।
- देवी दुर्गा, अपराजिता या महिषासुरमर्दिनी की मूर्ति, तस्वीर या यंत्र स्थापित करें।
- पूजा स्थल पर दीपक, धूपबत्ती, और फूल रखें।
(ग) सामग्री की व्यवस्था:
- दीपक और घी या तेल
- धूप और अगरबत्ती
- ताजे फूल, विशेषकर लाल फूल
- अक्षत (चावल), कुमकुम, और हल्दी
- प्रसाद के लिए फल या मिठाई
3. पूजा विधि
(क) गणेश वंदना:
पाठ शुरू करने से पहले भगवान गणेश का ध्यान करें, ताकि पाठ बिना किसी विघ्न के पूर्ण हो सके।
श्लोक:
वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ।
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा॥
(ख) देवी का ध्यान:
- आँखें बंद कर देवी अपराजिता का ध्यान करें।
- उनके अजेय स्वरूप की कल्पना करें, जहाँ वे शत्रुओं का नाश करते हुए भक्तों की रक्षा कर रही हैं।
(ग) आरंभिक प्रार्थना:
“हे अपराजिता देवी, मैं आपकी कृपा प्राप्त करने के लिए यह स्तोत्र पाठ कर रहा हूँ। कृपया मेरी रक्षा करें, मेरी मनोकामनाओं को पूर्ण करें और मुझे विजय प्रदान करें।”
4. अपराजिता स्तोत्रम् का पाठ
- शांत चित्त होकर अपराजिता स्तोत्रम् का पाठ करें।
- प्रत्येक श्लोक को स्पष्ट और ध्यानपूर्वक पढ़ें।
- यदि संभव हो, तो इसे तीन, पाँच या नौ बार पढ़ें।
महत्वपूर्ण श्लोक:
नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियता: प्रणताः स्म ताम्॥
या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
5. पाठ के बाद की क्रियाएँ
(क) आरती:
पाठ पूरा करने के बाद देवी की आरती करें।
आरती में दीपक जलाकर घुमाएँ और आरती गाएँ:
“जय अम्बे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी।”
(ख) प्रसाद वितरण:
आरती के बाद देवी को प्रसाद अर्पित करें। प्रसाद को सभी सदस्यों में बाँटें।
(ग) प्रार्थना:
- देवी अपराजिता से अपनी मनोकामना पूर्ति और सफलता की प्रार्थना करें।
- धन्यवाद स्वरूप अपनी श्रद्धा अर्पित करें।
6. पाठ के विशेष नियम
- नियमितता: यदि आप किसी विशेष उद्देश्य से अपराजिता स्तोत्रम् का पाठ कर रहे हैं, तो इसे नियमित रूप से 7, 11, 21 या 40 दिनों तक करें।
- श्रद्धा और भक्ति: पाठ करते समय मन को शांत और नकारात्मक विचारों से मुक्त रखें।
- संकल्प: पाठ से पहले देवी को अपनी समस्या बताकर संकल्प लें।
- निषेध: पाठ के दौरान अशुद्धि, क्रोध या आलस्य से बचें।
अपराजिता स्तोत्रम् का पाठ एक शक्तिशाली साधना है, जो भक्त को देवी अपराजिता के अजेय स्वरूप से जोड़ता है। इसे विधिपूर्वक करने से न केवल आध्यात्मिक लाभ होता है, बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त होती है। श्रद्धा और नियम के साथ इस पाठ को करें और देवी अपराजिता की कृपा से अपने जीवन को सफल और समृद्ध बनाएं।
अपराजिता स्तोत्रम् लीरिक्स (संक्षिप्त पाठ)
श्रीत्रैलोक्यविजया अपराजितास्तोत्रम् ।
ॐ नमोऽपराजितायै ।
ॐ अस्या वैष्णव्याः पराया अजिताया महाविद्यायाः
वामदेव-बृहस्पति-मार्कण्डेया ऋषयः ।
गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्बृहती छन्दांसि ।
लक्ष्मीनृसिंहो देवता ।
ॐ क्लीं श्रीं ह्रीं बीजम् ।
हुं शक्तिः ।
सकलकामनासिद्ध्यर्थं अपराजितविद्यामन्त्रपाठे विनियोगः ।
ॐ नीलोत्पलदलश्यामां भुजङ्गाभरणान्विताम् ।
शुद्धस्फटिकसङ्काशां चन्द्रकोटिनिभाननाम् ॥ १॥
शङ्खचक्रधरां देवी वैष्ण्वीमपराजिताम्
बालेन्दुशेखरां देवीं वरदाभयदायिनीम् ॥ २॥
नमस्कृत्य पपाठैनां मार्कण्डेयो महातपाः ॥ ३॥
मार्कण्डेय उवाच –
शृणुष्वं मुनयः सर्वे सर्वकामार्थसिद्धिदाम् ।
असिद्धसाधनीं देवीं वैष्णवीमपराजिताम् ॥ ४॥
ॐ नमो नारायणाय, नमो भगवते वासुदेवाय,
नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्रशीर्षायणे, क्षीरोदार्णवशायिने,
शेषभोगपर्य्यङ्काय, गरुडवाहनाय, अमोघाय
अजाय अजिताय पीतवाससे,
ॐ वासुदेव सङ्कर्षण प्रद्युम्न, अनिरुद्ध,
हयग्रीव, मत्स्य कूर्म्म, वाराह नृसिंह, अच्युत,
वामन, त्रिविक्रम, श्रीधर राम राम राम ।
वरद, वरद, वरदो भव, नमोऽस्तु ते, नमोऽस्तुते, स्वाहा,
ॐ असुर-दैत्य-यक्ष-राक्षस-भूत-प्रेत-पिशाच-कूष्माण्ड-
सिद्ध-योगिनी-डाकिनी-शाकिनी-स्कन्दग्रहान्
उपग्रहान्नक्षत्रग्रहांश्चान्या हन हन पच पच
मथ मथ विध्वंसय विध्वंसय विद्रावय विद्रावय
चूर्णय चूर्णय शङ्खेन चक्रेण वज्रेण शूलेन
गदया मुसलेन हलेन भस्मीकुरु कुरु स्वाहा ।
ॐ सहस्रबाहो सहस्रप्रहरणायुध,
जय जय, विजय विजय, अजित, अमित,
अपराजित, अप्रतिहत, सहस्रनेत्र,
ज्वल ज्वल, प्रज्वल प्रज्वल,
विश्वरूप बहुरूप, मधुसूदन, महावराह,
महापुरुष, वैकुण्ठ, नारायण,
पद्मनाभ, गोविन्द, दामोदर, हृषीकेश,
केशव, सर्वासुरोत्सादन, सर्वभूतवशङ्कर,
सर्वदुःस्वप्नप्रभेदन, सर्वयन्त्रप्रभञ्जन,
सर्वनागविमर्दन, सर्वदेवमहेश्वर,
सर्वबन्धविमोक्षण,सर्वाहितप्रमर्दन,
सर्वज्वरप्रणाशन, सर्वग्रहनिवारण,
सर्वपापप्रशमन, जनार्दन, नमोऽस्तुते स्वाहा ।
विष्णोरियमनुप्रोक्ता सर्वकामफलप्रदा ।
सर्वसौभाग्यजननी सर्वभीतिविनाशिनी ॥ ५॥
सर्वैंश्च पठितां सिद्धैर्विष्णोः परमवल्लभा ।
नानया सदृशं किङ्चिद्दुष्टानां नाशनं परम् ॥ ६॥
विद्या रहस्या कथिता वैष्णव्येषापराजिता ।
पठनीया प्रशस्ता वा साक्षात्सत्त्वगुणाश्रया ॥ ७॥
ॐ शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम् ।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत्सर्वविघ्नोपशान्तये ॥ ८॥
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि ह्यभयामपराजिताम् ।
या शक्तिर्मामकी वत्स रजोगुणमयी मता ॥ ९॥
सर्वसत्त्वमयी साक्षात्सर्वमन्त्रमयी च या ।
या स्मृता पूजिता जप्ता न्यस्ता कर्मणि योजिता ।
सर्वकामदुघा वत्स शृणुष्वैतां ब्रवीमि ते ॥ १०॥
य इमामपराजितां परमवैष्णवीमप्रतिहतां
पठति सिद्धां स्मरति सिद्धां महाविद्यां
जपति पठति शृणोति स्मरति धारयति कीर्तयति वा
न तस्याग्निवायुवज्रोपलाशनिवर्षभयं,
न समुद्रभयं, न ग्रहभयं, न चौरभयं,
न शत्रुभयं, न शापभयं वा भवेत् ।
क्वचिद्रात्र्यन्धकारस्त्रीराजकुलविद्वेषि-विषगरगरदवशीकरण-
विद्वेषोच्चाटनवधबन्धनभयं वा न भवेत् ।
एतैर्मन्त्रैरुदाहृतैः सिद्धैः संसिद्धपूजितैः ।
ॐ नमोऽस्तुते ।
अभये, अनघे, अजिते, अमिते, अमृते, अपरे,
अपराजिते, पठति, सिद्धे जयति सिद्धे,
स्मरति सिद्धे, एकोनाशीतितमे, एकाकिनि, निश्चेतसि,
सुद्रुमे, सुगन्धे, एकान्नशे, उमे ध्रुवे, अरुन्धति,
गायत्रि, सावित्रि, जातवेदसि, मानस्तोके, सरस्वति,
धरणि, धारणि, सौदामनि, अदिति, दिति, विनते,
गौरि, गान्धारि, मातङ्गी कृष्णे, यशोदे, सत्यवादिनि,
ब्रह्मवादिनि, कालि, कपालिनि, करालनेत्रे, भद्रे, निद्रे,
सत्योपयाचनकरि, स्थलगतं जलगतं अन्तरिक्षगतं
वा मां रक्ष सर्वोपद्रवेभ्यः स्वाहा ।
यस्याः प्रणश्यते पुष्पं गर्भो वा पतते यदि ।
म्रियते बालको यस्याः काकवन्ध्या च या भवेत् ॥ ११॥
धारयेद्या इमां विद्यामेतैर्दोषैर्न लिप्यते ।
गर्भिणी जीववत्सा स्यात्पुत्रिणी स्यान्न संशयः ॥ १२॥
भूर्जपत्रे त्विमां विद्यां लिखित्वा गन्धचन्दनैः ।
एतैर्दोषैर्न लिप्येत सुभगा पुत्रिणी भवेत् ॥ १३॥
रणे राजकुले द्यूते नित्यं तस्य जयो भवेत् ।
शस्त्रं वारयते ह्येषा समरे काण्डदारुणे ॥ १४॥
गुल्मशूलाक्षिरोगाणां क्षिप्रं नाश्यति च व्यथाम् ॥
शिरोरोगज्वराणां न नाशिनी सर्वदेहिनाम् ॥ १५॥
इत्येषा कथिता विद्या अभयाख्याऽपराजिता ।
एतस्याः स्मृतिमात्रेण भयं क्वापि न जायते ॥ १६॥
नोपसर्गा न रोगाश्च न योधा नापि तस्कराः ।
न राजानो न सर्पाश्च न द्वेष्टारो न शत्रवः ॥१७॥
यक्षराक्षसवेताला न शाकिन्यो न च ग्रहाः ।
अग्नेर्भयं न वाताच्च न स्मुद्रान्न वै विषात् ॥ १८॥
कार्मणं वा शत्रुकृतं वशीकरणमेव च ।
उच्चाटनं स्तम्भनं च विद्वेषणमथापि वा ॥ १९॥
न किञ्चित्प्रभवेत्तत्र यत्रैषा वर्ततेऽभया ।
पठेद् वा यदि वा चित्रे पुस्तके वा मुखेऽथवा ॥ २०॥
हृदि वा द्वारदेशे वा वर्तते ह्यभयः पुमान् ।
हृदये विन्यसेदेतां ध्यायेद्देवीं चतुर्भुजाम् ॥ २१॥
रक्तमाल्याम्बरधरां पद्मरागसमप्रभाम् ।
पाशाङ्कुशाभयवरैरलङ्कृतसुविग्रहाम् ॥ २२॥
साधकेभ्यः प्रयच्छन्तीं मन्त्रवर्णामृतान्यपि ।
नातः परतरं किञ्चिद्वशीकरणमनुत्तमम् ॥ २३॥
रक्षणं पावनं चापि नात्र कार्या विचारणा ।
प्रातः कुमारिकाः पूज्याः खाद्यैराभरणैरपि ।
तदिदं वाचनीयं स्यात्तत्प्रीत्या प्रीयते तु माम् ॥ २४॥
ॐ अथातः सम्प्रवक्ष्यामि विद्यामपि महाबलाम् ।
सर्वदुष्टप्रशमनीं सर्वशत्रुक्षयङ्करीम् ॥ २५॥
दारिद्र्यदुःखशमनीं दौर्भाग्यव्याधिनाशिनीम् ।
भूतप्रेतपिशाचानां यक्षगन्धर्वरक्षसाम् ॥ २६॥
डाकिनी शाकिनी-स्कन्द-कूष्माण्डानां च नाशिनीम् ।
महारौद्रिं महाशक्तिं सद्यः प्रत्ययकारिणीम् ॥ २७॥
गोपनीयं प्रयत्नेन सर्वस्वं पार्वतीपतेः ।
तामहं ते प्रवक्ष्यामि सावधानमनाः शृणु ॥ २८॥
एकान्हिकं द्व्यन्हिकं च चातुर्थिकार्द्धमासिकम् ।
द्वैमासिकं त्रैमासिकं तथा चातुर्मासिकम् ॥ २९॥
पाञ्चमासिकं षाङ्मासिकं वातिक पैत्तिकज्वरम् ।
श्लैष्पिकं सात्रिपातिकं तथैव सततज्वरम् ॥ ३०॥
मौहूर्तिकं पैत्तिकं शीतज्वरं विषमज्वरम् ।
द्व्यहिन्कं त्र्यह्निकं चैव ज्वरमेकाह्निकं तथा ।
क्षिप्रं नाशयेते नित्यं स्मरणादपराजिता ॥ ३१॥
ॐ हॄं हन हन, कालि शर शर, गौरि धम्,
धम्, विद्ये आले ताले माले गन्धे बन्धे पच पच
विद्ये नाशय नाशय पापं हर हर संहारय वा
दुःखस्वप्नविनाशिनि कमलस्थिते विनायकमातः
रजनि सन्ध्ये, दुन्दुभिनादे, मानसवेगे, शङ्खिनि,
चक्रिणि गदिनि वज्रिणि शूलिनि अपमृत्युविनाशिनि
विश्वेश्वरि द्रविडि द्राविडि द्रविणि द्राविणि
केशवदयिते पशुपतिसहिते दुन्दुभिदमनि दुर्म्मददमनि ।
शबरि किराति मातङ्गि ॐ द्रं द्रं ज्रं ज्रं क्रं
क्रं तुरु तुरु ॐ द्रं कुरु कुरु ।
ये मां द्विषन्ति प्रत्यक्षं परोक्षं वा तान् सर्वान्
दम दम मर्दय मर्दय तापय तापय गोपय गोपय
पातय पातय शोषय शोषय उत्सादय उत्सादय
ब्रह्माणि वैष्णवि माहेश्वरि कौमारि वाराहि नारसिंहि
ऐन्द्रि चामुण्डे महालक्ष्मि वैनायिकि औपेन्द्रि
आग्नेयि चण्डि नैरृति वायव्ये सौम्ये ऐशानि
ऊर्ध्वमधोरक्ष प्रचण्डविद्ये इन्द्रोपेन्द्रभगिनि ।
ॐ नमो देवि जये विजये शान्ति स्वस्ति-तुष्टि पुष्टि- विवर्द्धिनि ।
कामाङ्कुशे कामदुघे सर्वकामवरप्रदे ।
सर्वभूतेषु मां प्रियं कुरु कुरु स्वाहा ।
आकर्षणि आवेशनि-, ज्वालामालिनि-, रमणि रामणि,
धरणि धारिणि, तपनि तापिनि, मदनि मादिनि, शोषणि सम्मोहिनि ।
नीलपताके महानीले महागौरि महाश्रिये ।
महाचान्द्रि महासौरि महामायूरि आदित्यरश्मि जाह्नवि ।
यमघण्टे किणि किणि चिन्तामणि ।
सुगन्धे सुरभे सुरासुरोत्पन्ने सर्वकामदुघे ।
यद्यथा मनीषितं कार्यं तन्मम सिद्ध्यतु स्वाहा ।
ॐ स्वाहा ।
ॐ भूः स्वाहा ।
ॐ भुवः स्वाहा ।
ॐ स्वः स्वहा ।
ॐ महः स्वहा ।
ॐ जनः स्वहा ।
ॐ तपः स्वाहा ।
ॐ सत्यं स्वाहा ।
ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा ।
यत एवागतं पापं तत्रैव प्रतिगच्छतु स्वाहेत्योम् ।
अमोघैषा महाविद्या वैष्णवी चापराजिता ॥ ३२॥
स्वयं विष्णुप्रणीता च सिद्धेयं पाठतः सदा ।
एषा महाबला नाम कथिता तेऽपराजिता ॥ ३३॥
नानया सदृशी रक्षा। त्रिषु लोकेषु विद्यते ।
तमोगुणमयी साक्षद्रौद्री शक्तिरियं मता ॥ ३४॥
कृतान्तोऽपि यतो भीतः पादमूले व्यवस्थितः ।
मूलाधारे न्यसेदेतां रात्रावेनं च संस्मरेत् ॥ ३५॥
नीलजीमूतसङ्काशां तडित्कपिलकेशिकाम् ।
उद्यदादित्यसङ्काशां नेत्रत्रयविराजिताम् ॥ ३६॥
शक्तिं त्रिशूलं शङ्खं च पानपात्रं च विभ्रतीम् ।
व्याघ्रचर्मपरीधानां किङ्किणीजालमण्डिताम् ॥ ३७॥
धावन्तीं गगनस्यान्तः पादुकाहितपादकाम् ।
दंष्ट्राकरालवदनां व्यालकुण्डलभूषिताम् ॥ ३८॥
व्यात्तवक्त्रां ललज्जिह्वां भृकुटीकुटिलालकाम् ।
स्वभक्तद्वेषिणां रक्तं पिबन्तीं पानपात्रतः ॥ ३९॥
सप्तधातून् शोषयन्तीं क्रूरदृष्ट्या विलोकनात् ।
त्रिशूलेन च तज्जिह्वां कीलयन्तीं मुहुर्मुहुः ॥ ४०॥
पाशेन बद्ध्वा तं साधमानवन्तीं तदन्तिके ।
अर्द्धरात्रस्य समये देवीं धायेन्महाबलाम् ॥ ४१॥
यस्य यस्य वदेन्नाम जपेन्मन्त्रं निशान्तके ।
तस्य तस्य तथावस्थां कुरुते सापि योगिनी ॥ ४२॥
ॐ बले महाबले असिद्धसाधनी स्वाहेति ।
अमोघां पठति सिद्धां श्रीवैष्णवीम् ॥ ४३॥
श्रीमदपराजिताविद्यां ध्यायेत् ।
दुःस्वप्ने दुरारिष्टे च दुर्निमित्ते तथैव च ।
व्यवहारे भेवेत्सिद्धिः पठेद्विघ्नोपशान्तये ॥ ४४॥
यदत्र पाठे जगदम्बिके मया
विसर्गबिन्द्वऽक्षरहीनमीडितम् ।
तदस्तु सम्पूर्णतमं प्रयान्तु मे
सङ्कल्पसिद्धिस्तु सदैव जायताम् ॥ ४५॥
तव तत्त्वं न जानामि कीदृशासि महेश्वरि ।
यादृशासि महादेवी तादृशायै नमो नमः ॥ ४६॥
अपराजिता स्तोत्रम् अर्थ
यहाँ दिए गए “अपराजिता स्तोत्रम्” का हिंदी अर्थ इस प्रकार है:
- अपराजिता स्तोत्रम् का प्रारंभ
मैं अपराजिता देवी को प्रणाम करता हूँ। यह स्तोत्र वैष्णवी परा विद्या ‘अपराजिता’ को समर्पित है। इसके ऋषि वामदेव, बृहस्पति और मार्कण्डेय हैं। छंद गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप और बृहती हैं। देवता लक्ष्मीनृसिंह हैं। इसके बीज ‘ॐ क्लीं श्रीं ह्रीं’ हैं। इसका पाठ सभी कामनाओं की सिद्धि हेतु किया जाता है।
- देवी का ध्यान
नील कमल के समान श्यामवर्णा, नागाभूषणों से विभूषित, शुद्ध स्फटिक जैसी कांति वाली, और करोड़ों चंद्रमाओं के समान उज्ज्वल मुखवाली देवी की स्तुति करें।
वे शंख और चक्र धारण करती हैं। उनके सिर पर बालचंद्र है, वे वर और अभय प्रदान करने वाली देवी हैं।
- मार्कण्डेय ऋषि द्वारा स्तुति
मार्कण्डेय ऋषि कहते हैं:
“हे मुनियों, सुनो। यह वैष्णवी देवी ‘अपराजिता’ है। इसे असिद्ध कार्यों को सिद्ध करने वाली, सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाली देवी के रूप में जाना जाता है।”
- अपराजिता देवी का महत्व
जो इस स्तोत्र का पाठ करते हैं, उन्हें किसी भी प्रकार का भय, चाहे वह अग्नि, समुद्र, चोर, शत्रु या ग्रहों से हो, नहीं होता।
यह स्तोत्र विष, शाप, या किसी भी प्रकार की नकारात्मकता से रक्षा करता है। जो स्तोत्र का स्मरण करता है, उसे हर प्रकार की सिद्धि प्राप्त होती है।
- साधना विधि
देवी अपराजिता की पूजा विशेष विधि से की जाती है। इसे रात्रि में, हृदय में स्थापित कर, चतुर्भुज देवी का ध्यान करना चाहिए। उनके हाथों में पाश, अंकुश, अभय मुद्रा और वर मुद्रा होती है। वे रक्तवस्त्र और आभूषण धारण करती हैं।
- देवी की शक्ति और कार्य
देवी सभी प्रकार के रोग, बाधाएँ, और संकट हरने वाली हैं। यह स्तोत्र वशीकरण, शत्रुनाश, और सभी प्रकार की रक्षा में सक्षम है।
जो इसे सुनते, पढ़ते, या हृदय में धारण करते हैं, उन्हें नकारात्मक शक्तियों, शत्रुओं, और भूत-प्रेत से डरने की आवश्यकता नहीं होती।
- रोग और ज्वर नाशक
यह स्तोत्र सभी प्रकार के ज्वर जैसे वातज, पित्तज, कफज, या विषम ज्वर को शांत करता है। यह विशेष रूप से गर्भवती स्त्रियों के लिए लाभकारी है, जिससे उन्हें संतान की प्राप्ति होती है।
- अपराजिता देवी का ध्यान
रात्रि के मध्य, देवी का ध्यान करते हुए, उन्हें अपने हृदय में स्थापित करें। वे गगन में विचरण करने वाली, विद्युत के समान कांतिवाली, और क्रोध से लाल आंखों वाली हैं।
- संकल्प सिद्धि का आशीर्वाद
“हे जगदम्बिके, यदि इस पाठ में कोई त्रुटि हो, तो कृपया उसे क्षमा करें। मेरा संकल्प सिद्ध हो और सदा के लिए पूर्णता प्राप्त करे।”
- समापन
“हे महेश्वरी, मैं आपके स्वरूप को नहीं जानता, पर जो भी आपका स्वरूप है, उसे मैं बार-बार प्रणाम करता हूँ।”
यह स्तोत्र न केवल शत्रु, रोग, और विपत्तियों से रक्षा करता है, बल्कि साधक को अपराजित शक्ति, संकल्प सिद्धि, और आंतरिक शांति प्रदान करता है। इसे विधिपूर्वक और श्रद्धा से पढ़ने से साधक को अपार लाभ प्राप्त होता है।
अपराजिता स्तोत्रम् पाठ के फायदे
अपराजिता स्तोत्रम् एक अत्यंत प्रभावशाली स्तोत्र है, जो देवी अपराजिता (मां दुर्गा) को समर्पित है। इसे नियमित रूप से पढ़ने से आध्यात्मिक और मानसिक लाभ प्राप्त होते हैं। यहां इसके पाठ के मुख्य लाभ विस्तार से दिए गए हैं:
1. संकटों का नाश
अपराजिता स्तोत्रम् का पाठ जीवन में आने वाले संकटों, बाधाओं और परेशानियों को दूर करता है।
यह स्तोत्र व्यक्ति को किसी भी परिस्थिति में विजय दिलाने की शक्ति प्रदान करता है।
2. साहस और आत्मविश्वास में वृद्धि
इस स्तोत्र का नियमित पाठ करने से व्यक्ति के भीतर आत्मविश्वास और साहस बढ़ता है।
यह भय, शंका और असुरक्षा की भावनाओं को समाप्त करता है।
3. सद्गुणों का विकास
अपराजिता स्तोत्रम् के पाठ से व्यक्ति के भीतर धैर्य, सहनशीलता और सकारात्मक सोच का विकास होता है।
यह व्यक्ति को मानसिक शांति और स्थिरता प्रदान करता है।
4. शत्रुओं पर विजय
यह स्तोत्र शत्रुओं के दुष्प्रभावों को समाप्त करने और उनकी योजनाओं को विफल करने में मदद करता है।
कानूनी मामलों, विवादों और प्रतियोगिताओं में सफलता के लिए भी इसका पाठ किया जाता है।
5. सफलता और समृद्धि
अपराजिता स्तोत्रम् पढ़ने से व्यक्ति को कार्यक्षेत्र और व्यक्तिगत जीवन में सफलता प्राप्त होती है।
यह स्तोत्र समृद्धि और धन-धान्य को आकर्षित करता है।
6. दुर्भाग्य का निवारण
यदि व्यक्ति का भाग्य बार-बार बाधित हो रहा हो या उसे निरंतर असफलताओं का सामना करना पड़ रहा हो, तो यह स्तोत्र दुर्भाग्य को समाप्त करता है।
शुभ कार्यों में सफलता मिलती है।
7. आध्यात्मिक उन्नति
अपराजिता स्तोत्रम् के नियमित पाठ से व्यक्ति की आध्यात्मिक शक्ति बढ़ती है और वह ईश्वर से निकटता का अनुभव करता है।
यह मोक्ष की प्राप्ति और ईश्वर की कृपा प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करता है।
8. मानसिक शांति
मानसिक तनाव, चिंता और अवसाद से ग्रस्त व्यक्तियों के लिए यह स्तोत्र अत्यधिक लाभकारी है।
इसे पढ़ने से मन शांत और स्थिर होता है।
9. पारिवारिक सुख-शांति
पारिवारिक समस्याओं के समाधान और घर में सुख-शांति बनाए रखने के लिए भी इसका पाठ प्रभावी है।
यह परिवार के सदस्यों के बीच आपसी प्रेम और सौहार्द बढ़ाने में सहायक है।
निष्कर्ष
अपराजिता स्तोत्रम् एक ऐसा दिव्य पाठ है, जो भक्तों को हर परिस्थिति में विजय और आत्मबल प्रदान करता है। यह स्तोत्र हमें याद दिलाता है कि हर चुनौती पर विजय प्राप्त करने के लिए देवी अपराजिता का आशीर्वाद और उनके गुणों का अनुसरण आवश्यक है। जो भी सच्चे हृदय से इसका पाठ करता है, उसे देवी की कृपा अवश्य प्राप्त होती है।
अपराजिता स्तोत्रम् का नियमित रूप से पाठ करें और अपने जीवन को सफल, शक्तिशाली और समृद्ध बनाएं।
जय माता दी!
नमस्ते, मैं सिमरन, हिंदू प्राचीन इतिहास और संस्कृति की गहन अध्येता और लेखिका हूँ। मैंने इस क्षेत्र में वर्षों तक शोध किया है और अपने कार्यों के लिए कई प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त किए हैं। मेरा उद्देश्य हिंदू धर्म के शास्त्रों, मंत्रों, और परंपराओं को प्रामाणिक और सरल तरीके से पाठकों तक पहुँचाना है। मेरे साथ जुड़ें और प्राचीन भारतीय ज्ञान की गहराई में उतरें।🚩🌸🙏